"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

व्यापार से उपनिवेशः ईस्ट इंडिया कंपनियों की ऐतिहासिक गतिशीलता

दुनिया में, ’’17 वीं शताब्दी के बीच में, योरप के मुकाबले एशिया सबसे अधिक महत्व रखता था।’’ पेरिस में, 1950 में, प्रकाशित जे. पिरेने ने अपनी ’’हिस्ट्र्ी आॅफ दी युनिवर्स’’ में लिखा था। उसने जोड़ाः ’’एशिया के धनाड्य, योरोपियन राज्यों के धनाड्यों की अपेक्षा अतुलनीयरूप से बड़े थे। जो औद्योगिक तकनीकी कुशलता और परंपरागतता उसने दर्शाई वह योरप के हस्तकौशल के पास नहीं थी। पश्चिमी देशों के व्यापारी द्वारा अपनाये गए आधुनिक तरीकों में ऐसा कुछ भी न था, जिससे एशियायी व्यापार ईर्षा कर सके और कर्ज, धन स्थानांतरण, बीमा, और अनुबंध लेखन के संबंध में योरप से भारत, परशिया, या चीन कुछ भी सीख पा सके।’’ अगस्ते त्उसेंट की ’’हिस्ट्र्ी आॅफ दी इंडियन ओशन’’ में कहा।

17 वीं शताब्दी की शुरूआत में, ऐसी स्थिति थी जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी गतिविधियां शुरू की थीं। प्रारंभ में, ब्रिटिश व्यापारी योरोपीय महाद्वीप में सबसे अधिक प्रचलित निर्यात की अपनी वस्तु - ब्राड क्लाथ - के बेचने की आशाओं के साथ भारत आये थे, परंतु उसकी कम मांग देखकर निराश हुए। इसके विपरीत, अपने पोर्तगाली प्रतिद्वन्दी के समान, उन्हें भारत निर्मित अनेक वस्तुएं मिलीं जिन्हें वे अपने देश में अच्छे लाभ पर बेच सकते थे। प्रारंभ के ब्रिटिश व्यापारी दूसरे योरोपियन व्यापारियों और योरप के लिए अनेक व्यापारिक मार्र्गाें की /ईजिप्ट से होकर लाल सागर, ईराक से होकर परशियन गल्फ और अफगानिस्थान, पर्शिया और टर्की होकर उत्तरी मार्ग/ प्रतिस्पद्र्धा की वजह से अपनी शर्तें मनवा लेने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें दयार्द्र होकर छूटें मांगना पड़ीं और व्यापारिक शर्तें देना पड़ीं जिनसे कमोवेश स्थानीय व्यापारियों और शासकों को लाभ हो सके। जबकि औरंगजेब ने बढ़ते हुए योरपीय व्यापारिक छूटों और स्थल व्यापार से घटते हुए राजस्व को शायद भांप लिया और ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों को सीमा और नियंत्राण में रखने की कोशिश की, भारत के सभी राजा उतनी व्यापारिक छूटें देने में संकोच करते थे। साथ में, ईस्ट इंडिया कंपनी छूटों के लिए कटिबद्ध थी और चिरौरी करती रहती थी। उसने भारत के विशाल सामुद्रिक किनारों पर व्यापारिक आधार बनाये।

उस समय, भारत और ब्रिटिशों के बीच सौहार्द्र की कमी न थी और ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों देशवासियों को सेवा में रखते थे। दोनों देशों के बीच मित्राता न केवल व्यापारिक संबंधों में बल्कि उससे दूर एक दूसरे के बीच शादी करने तक उत्पन्न हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी, ब्रिटिश कुलीनता की दमघोटू आडम्बरी से प्रभावित हुए बिना जीवन का बड़ा भाग भारत में, भारतीय ठंडे और आरामदाई कपड़ों को पहिनते हुए, भारत के आमोद प्रमोद का आनंद लेते और अपनी बोली में स्थानीय शब्दों को समाहित करते हुए बिताया करते थे। ये ब्रिटिश व्यापारी भारत में बनी वस्तुओं के आकर्षण और बारीक हस्तशिल्प से गद्गद् हुए और फ्रांस तथा ब्रिटेन में उनकी बढ़ती हुई मांग से लाभ उठाया। व्यापार इतना लाभदाई था कि ईस्ट इंडिया कंपनी समृद्ध हुई। भारतीय व्यापारी बदले में सोना या चांदी छोड़कर कुछ और स्वीकार नहीं करते थे।

अफ्रीका केप को घेरकर इंग्लेंड पहुंचने के लम्बे रास्ते को देखते हुए यह आश्चर्यजनक था कि ब्रिटिश ने बहुत संपदा अर्जित की थी। परंतु अन्य कारणों ने इस असुविधा को फलांगा। पहला, उन्हें इंग्लेंड में कानूनी एकाधिकार के द्वारा ब्रिटिश बाजार पर महत्वपूर्ण नियंत्राण प्राप्त था। दूसरे, स्त्रोत् पर ही सीधी खरीद के द्वारा योरप को स्थल मार्ग से पहुंचने वाली भारतीय वस्तुओं की बढ़ गई कीमत को वे हरा देने में सक्षम थे। तीसरे, संभवतया, ईस्ट इंडिया कंपनी परिमाण की आधिकता का फायदा उठा पा रहे थे क्योंकि इंडियन ओशन में, उनके जहाज सबसे बड़े होने में से एक थे। साथ ही, अफ्रीका और अमेरिका में भारतीय वस्तुओं के लिए नए बाजार विकसित करने में भी वे समर्थ थे।

और अंतिम शायद सबसे अधिक महत्वकारी जैसा कि वेरोनिका मर्फी ने ’’योरोपियन्स् एण्ड दी टेक्सटाईल ट्र्ेड’’ /आर्ट आॅफ इंडिया, 1550-1900/ में लिखाः ’’यद्यपि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने को एटलांटिक पार के दासों के व्यापार से तो नहीं जोड़ा था परंतु उनके सू़़त्रा बड़े लाभदायी और निकटता के थे।’’ वास्तव मंे, 18 वीं शताब्दी में, अन्य योरोपियन शक्तियों के गठजोड़ की अपेक्षा ब्रिटिश एटलांटिक दास व्यापार के दासों का परिवाहन करके प्रभुत्व करते थे। 1853 में, ’’दी स्लेव ट्र्ेड, डोमिस्टिक एण्ड फारेन’’ के लेखक, हेनरी केरे ने लिखाः ’’सर्वाधिक विशाल दास प्रथा को दुनिया ने देखा और जहां भी इंग्लेंड को नियंत्राण मिल सका, उनमें से हरएक देश से स्वतंत्राता धीरे धीरे विलुप्त हो रही है।’’ इसलिए एटलांटिक दास व्यापार ईस्ट इंडिया कंपनियों की आर्थिक शक्ति में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरीकारक है।’’

17 वीं शताब्दी के मध्य तक, ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय माल को योरप और उत्तरी अफ्रीका और यहां तक कि टर्की को पुनः निर्यात करने लगी। अनाश्चर्यरूप से आटोमंस, परशियन्स और अफगानीज पर इससे गंभीर और हानिकारक असर पड़ा क्योंकि इन राज्यों के राजस्व का बड़ा भाग भारतीय व्यापार से मिलता था। मुगलों के राजस्व पर भी गंभीररूप से आघात हुआ और उनका व्यापार बहुत कम हो गया था यद्यपि अरब और गुजराती व्यापारियों के कार्यकलाप पूरी तौर पर खत्म नहीं हुए थे परंतु बड़े पैमाने पर निर्विघ्न रूप से एशिया के भीतर तक ही सिमट गये। मुगल शासन इन विकेंद्रित ताकतों का मुकाबला न कर सका और शीघ्रता से विघटित हो गया। इससे ईस्ट इंडिया कंपनी ने अधिक गंभीररूप से उत्तोलक शक्ति पाई और अपने क्रियाकलापों के प्रसार को बढ़ाने में ढीठ हो गई तथा भारतीय शासकों से बड़ी छूटों की मांग करने लगी।

परंतु जैसे-जैसे भारतीय शासक अधिक छूट देने लगे, एशिया में सोने और चांदी की हानि के रोने-धोने का समवेत स्वर उठने लगा। 17 वीं शताब्दी के अंत तक, इंग्लेंड और फ्रांस के सिल्क और उन के व्यापारी भारतीय वस्त्रा उद्योग के साथ की प्रतिस्पद्र्धा जो योरप की नवबूर्जुआ समाजों में क्रोध का कारण बन गया था, को सहन करने के लिए तैयार न थे। वे ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों पर रोक लगाने की मांग करने लगे। उनने न केवल रोक लगाने की मांग की वरन् अपने देशों में इन वस्तुओं की खरीद पर पाबंदी लगाने की मांग की जीत भी पाई। इन पाबंदियों ने जब इन्हीं वस्तुओं की चोरी छिपे खरीद को पूरी तरह खत्म किए बिना, अधिकांश व्यापार को स्थानीय भारतीय राज्यों के राजस्व पर दबाव देते हुए सिमटा दिया और इसके परिणाम भुगतने में बंगाल पहला था।

भारतीय वस्त्रा उद्योग से लाभ कमाने के अवसर को खोे चुकने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी अपना रवैया बदलने मंे नहीं हिचकिचाई। 1616 में, सर थामस रो, ईस्ट इंडिया कंपनी के उपराजदूत, ने मुगलों को बतलाया था कि युद्ध और व्यापार परस्पर विरोधी थे। परंतु 1669 में, /वस्त्रा उद्योग पर रोक के पहले ही/ बंबई के कारखाने के प्रमुख जेराल्ड अनजीयर ने अपने निदेशिकों को लिखाः ’’हाथों में तलवार के साथ सामान्य व्यापार सम्हालना इस समय की जरूरत है।’’ 1687 में, निदेशिकांे का उत्तर, गोवा के समान, भारत में ब्रिटिश उपनिवेशन की वकालत करते हुए आया। फ्रेंच डूप्लेक्स का भी कमोवेश वही नजरिया था। 1614 की शुरूआत में, डच जाॅन पीटरजोन कोयेन ने अपने निदेशिकों को लिखाः ’’आपकी अभिरक्षा और शस्त्रों के नीचे भारत में व्यापार करना और बनाये रखा जाना चाहिए और व्यापार के लाभांश से शस्त्रों की आपूर्ति की जानी चाहिए जिससे व्यापार के साथ युद्ध या युद्ध के साथ व्यापार किया जा सकेे।’’ अगस्ते टूसेंट की ’’हिस्ट्र्ी आॅफ दी इंडियन ओसन’’।

18 वीं शताब्दी में, राॅयल ब्रिटिश नेवी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक हितों के लिए अफीम के व्यापार से /जो अंततः अफीम युद्ध की ओर ले गया था/ कमोवेश, मिलकर काम किया एवं युुद्ध और व्यापार के बीच के गठजोड़ का उदाहरण पेश किया। युद्ध और व्यापार के आपस में गुथने से उपनिवेशन केवल एक कदम की दूरी पर रह गया था। भारत-ब्रिटिश संबंधों में नयी गतिशीलता का अशुभ संकेत पलासी था।

उपनिवेश शासन के अनेक समर्थक जो अब भी तर्क करते हैं कि ’’जन्मजात दरारों’’ या शताब्दियों पुरानी ’’खिन्नता’’ या ’’एशियावासियों का दुर्बल चरित्रा’’ या ’’भारतीयों /और दूसरे एशियनों/ की स्वयं पर शासन करने की अयोग्यता’’ भारत की हार के लिए पूरी तौर से जिम्मेवार थी। इस नजरिये से भिन्न, आर. मुखर्जी ने /राईज एण्ड फाॅल आॅफ ईस्ट इंडिया कंपनी/ में दूसरा ही सिद्धांत प्रतिपादित किया। उनने तर्क किया कि मजबूर करने वालीं कुछ आर्थिक अनिवार्यताएं थीं जिन्होंने योरपीय इंडिया कंपनियों को उपनिवेशवाद के रास्ते पर ला दिया। उन्होंने बताया कि यद्यपि इजारेदारी के अधिकार इंडिया कंपनियों को खरीदी और बेचान में निरंकुश सुविधाएं सुनिश्चित करते थे पर इस बात की गारंटी नहीं देते थे कि वे सस्ती दर पर खरीदी कर सकें। सस्ती दर पर खरीदी के लिए राजनीतिक नियंत्राण जरूरी था।

दूसरा कारण ईस्ट इंडिया कंपनी का था कि उसके लाभ का सीधा मुकाबला अपने ही देशवासी प्रतिद्वंदियों से था। इन परिस्थितियों के तहत जहां तक कि लाभ का उद्देश ही सर्वोपरि था /जोकि था/ , पलासी का युद्ध और अफीम का युद्ध उन स्थितियों की तार्किक उत्पत्तियां थीं जिनमें कानूनी और सम्मानीय साधनों से लाभ बनाये रखना असंभव था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यदि ईस्ट इंडिया कंपनी ’’जेन्टिलमैन ट्र्ेडर्स’’ के अंतर्गत होती तो भारतीय व्यापार से चाय के लिए अफीम के व्यापार में न बदल पाती, जो आज की भाषा में, निश्चित तौर पर ’’ड्र्ग रनिंग’’ के रूप में ही कही जाती। यदि ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारी ’’मैन आॅफ आॅनर’’ होते और लाभदायी व्यापार के अधिकार को नकारते तो जैसा कि बहुत लोग व्यापार की दुनिया में करते हैं वे सीधे से दिवालिया हो जाते।

तो भी जो और भी महत्वकारी है कि यद्यपि ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुनः अच्छे पैमाने पर अफीम के व्यापार से लाभ प्राप्त किया था से यह प्रगट नहीं हुआ कि भविष्य में आक्रमक गतिविधियां नहीं होंगी। नरभक्षी शेर के की कहावत सच साबित हुई कि एकबार खून का स्वाद चख, वह बारंबार उसको चखने का आदी बनता है। पलासी के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में ही अफीम की पर्याप्त मात्रा में पैदावार करवाने के लिए मजबूर करने की स्थिति में पहुंच गई और जिससे ब्रिटिश बाजार के लिए बड़े पैमाने पर लाभ पाते हुए पर्याप्त मात्रा में चाय प्राप्त की जा सके। इससे लगे, अब, अंतर एशियन व्यापार में लगे भारतीय जहाजों /और दूसरे एशियन भी/ पर सैनिक आक्रमणों को मोड़ा जाये। ये आक्रमण मराठा और कोरामंडल जिनके राजस्व इन व्यापार से कम हो रहे थे, के विरूद्ध आधारशिला बन रहे थे। जबकि ईस्ट इंडिया कंपनी को पलासी ’’जीवित’’ रह पा सकने की बात रही हो, बाद की लड़ाईंयां उस श्रेणी की नहीं थीं। कुछ इतिहासकार बतलाने की कोशिश करते हैं कि फ्रेंच के साथ की प्रतिस्पद्र्धा ने दक्षिण भारत में युद्ध करवाये, किन्तु इस प्रकार के नजरिये को फ्रांस के ही एक व्यक्ति ने नकारा।

’’लेस ट्र्ीयोस एजेज डेस कालोनीज्, पेरिस, 1902’’ के लेखक एब्बी डी. प्राॅट ने लिखा कि पलासी की जीत और संप्रभुता संपन्न अधिकारों की स्थापना के बाद इंग्लेंड ने समूचे योरप को बतला दिया कि भारत को ’’नई दुनिया’’ से प्राप्त कीमती ’’धातु मुद्रा’’ भेजना जरूरी नहीं रह गया। वह वस्तुओं और आवाम से प्राप्त करों के राजस्व से व्यापार कर सकता है, जबकि योरोपीय अन्य देश ’’धातु मुद्रा’’ के चुकारे पर ही व्यापार कर पाते थे। भारत मेें अंग्रेजी संप्रभुता के प्रसार सेे भारत को धन भेजने से योरप को मुक्ति हो सकेगी। एब्बी डी. प्राॅट ने विशेषकर लिखाः ’’लोग जिनको भारत पर पर्याप्त नियंत्राण प्राप्त है एशिया को योरपीय धातु मुद्रा के निर्यात को मूलरूप से कम करने, अपने लाभ के साथ साथ योरप के लाभ के लिए भी शासन करते हैं, उनका साम्राज्य खास के बजाय अधिक सामान्य है, अधिक योरोपियन है अपेक्षाकृत ब्रिटिश के; जैसे वह फैलता वैसे योरप को लाभ मिलता है और प्रत्येक विजय से उन्हें वास्तविक जीत हासिल होती है।’’ ब्रिटिश जीत के विरोधियों की भर्तस्ना करते हुए वह लिखता है, भारत में इंग्लेंड के आधिपत्य के बारे में योरप के चारों ओर की गुस्सा और चिल्लाहटें अंधे के सन्निपात की चीत्कारें की तरह हैं, यह सोचा जाता है कि एशिया से जो भी जीता जाता है वह योरोपियन के हक में से इंग्लेंड ले रहा था जबकि इसके विपरीत, एशिया का वह हिस्सा जो उसने अपने लिए लिया है, तथ्यात्मक रूप से, योरप के लिए लिया है।’’

वास्तव में, बाद के अनेक विश्लेषिकांे के नजरिये से यह पूरी तरह से मेल खाता है कि अब 17 वीं शताब्दी की तुलना में 18 वीं शताब्दी में, योरप के आपसी झगड़े एवं प्रतिस्पर्धायें कम हुईं और पलासी के बाद तो और भी कम हुईं। सार में, भारत-उपनिवेशन की दौड़ ब्रिटिश के द्वारा जीती गई और एब्बी डी. प्राॅट सच कह रहा था कि इस जीत के ’’सामान्य’’ लाभ फ्रांस के हित में थे मुकाबले ब्रिटिश विजय से ’’खास’’ लाभ की हानि के विलाप के।

एन. के. सिन्हा, ’’इकोनोमिक हिस्ट्र्ी आॅफ बंगाल’’ के लेखक इन शब्दों में संक्षेप करते हैंः ’’दो शताब्दियों से अधिक तक योरोपियन ने पाया कि गैर कानूनी ढ़ंग, व्यक्तिगत स्वतंत्रा व्यापारियों या कंपनियों द्वारा बंगाल में किया गया व्यापार बंगाल के हित में होता और चुकारे नगद में ही किए जातेे। अब पलासी के बाद, ’’स्वतंत्रा व्यापारिक साधनों’’ द्वारा माल की आपूर्तियां बंगाल में ही मिलने लगीं’’। बंगाल की जनता से ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा जबरिया करों के संदर्भ में।

वह आगे बताते हंैः ’’देश के व्यापारी का कारोबार रुकना शुरू हो गया। अरमेनियन, मुगल, गुजराती, और बंगाली व्यापारी पाते कि उनका स्वतंत्रा कारोबार बधित और बोझिल बनाया जाता था।’’ भारतीय स्वतंत्रा व्यापारियों के हाथों से वस्तुओं का निर्माण, आयात और निर्यात निकलकर ईस्ट इंडिया कंपनी किराये पर लिए दलालों के पास जा रहा था। बहुधा इसको सेना की आवश्यकता होती। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय प्रतिद्वंदियों के कारखानों को नष्ट करने के लिए कंपनी के सिपाही भेजे जाते। स्वतंत्रा बुनकर जो ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बेहद कम मजदूरी पर काम करने से इंकार करते उनके अंगूठे काटे जाते। पलासी के बाद आंतरिक स्थल मार्ग के व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने बढ़कर अपनी निरंकुशता थोपी। पलासी के तीन दशाब्दियों के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के आर्थिक और राजनीतिक जीवन पर वास्तविक दमघोंटू पकड़ प्राप्त कर ली गयी थी।

जैसी कि एब्बी डी. प्राॅट ने भविष्यवाणी की थी उपनिवेश के लाभ केवल ब्रिटिशों को नहीं मिले। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित व्यापारिक एकछत्राता के लाभ को फ्रंेच, डच और डेनिश प्रतिद्वंदी भी पाने लगे। भारतीय व्यापारियों के समाप्त होने से वे कम मूल्य पर भारतीय वस्तु पाने लगे। दूसरे, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भ्रष्ट स्थानीय कर्मचारी ठगी, धोखाधड़ी और गंभीररूप से कीमतों में कटौतियां करने में लिप्त रहते थे। भारत से इस प्रकार की गैर-कानूनीरूप से अर्जित धन को करों तथा ब्रिटेन में आयात शुल्क से बचाने के लिए, वे फ्रेंच और डच प्रतिद्वंदियों के माध्यम से स्वदेश भेजना पसंद करते थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के भारतीय प्रतिद्वंदी खत्म हो गए और योरोपियन 30 से 40 वर्षों तक फलते फूलते रहे।

अमेरिकन फरबर, जिसने 1948 में /केम्ब्रिज मास/ ईस्ट इंडिया कंपनी पर अपने शोध को प्रकाशित किया में बतलाया है कि 1769 और 1798 तक फ्रेंच और डच प्रतिद्वंदी क्रियाशील रहे थे। वह यह भी बतलाता है कि वह सच्चा बहुउद्देशीय गठबंधन था। कम से कम उसकी नाममात्रा की पूंजी का 1/5 वाॅ भाग /3,200,00 पाउंड/ डच हाथों में था और उस पूंजी का बड़ा भाग आर्मस्टरडम, पेरिस, कोपनहेगन और लिस्बन के धनाढय्ों से आया था। वेे कंपनी के कार्यकलापों से सीधा संबंध भी रखते थे। फरबर ने इस बात को देखा कि फ्रेंच, डच और डेनिस की व्यापारिक गतिविधियां 18 वीं शताब्दी में, इंडियन ओशन में साफ तौर पर प्रगट करतीं थीं किः ’’समय आ गया कि अब भारत में ब्रिटिश राज्य के बनने के काम में भाग लेने के लिए देश या समुद्र के सब योरोपियन भारतीय प्रायद्वीप के किसी भी भाग पर अपनी शक्ति बनाये रखने की बाजी चलने के लिए बाध्य थे।’’ फरबर जो बात बताना चाहता था वह न केवल मुख्यतया ईस्ट इंडिया कंपनी और अंतरदेशीय स्वभाव की थी बल्कि उसके पीछे वालों के सीधे स्वार्थ और प्रयोजन की भी थी।

इस प्रकार से पलासी अनेक आक्रमणों में से एक था जिसका किसी भारतीय शक्ति ने सफलतापूर्वक बचाव नहीं किया। जबकि संगठित भारत योरोपियन को बड़े तौर पर रोक सका और विभाजित भारत अस्थाई तौर पर विभाजित योरप को रोक सका पर विभाजित भारत का तो संगठित योरप से कोई मुकाबला न था। 1818 में मराठों की निर्णायक पराजय में 1848 में सिखों की और 1856 में, अवध के संलग्न करने से भारत पर विजय अभियान जारी रहा। 1857 में, ईस्ट इंडिया कंपनी की जीतों को पीछे छोड़ देने का एक वीरतापूर्ण प्रयत्न था, परंतु उसके बदले, अब, उसने ब्रिटिश राजशाही की सरकार की संपूर्ण शक्ति को ही ला दिया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की कालोनियां ब्रिटिश उपनिवेशिक-भारत बना और इस तरह उपमहाद्वीप में उपनिवेशिक लूटपाट का नया युग शुरू हुआ। एक ऐसा युग जिसने ब्रिटिश नेतृत्व को सदा चुनौतियां देते देखा परंतु 1947 तक वैसा न था कि नया युग उभरकर आ सके।

इस तरह से लगभग 200 वर्षों तक भारत से योरप को धन संपदा का सुचारूरूप से स्थानांतरण हुआ। यद्यपि शुरूआती लाभग्राही ब्रिटिश रहा हो, योरप के उसके सहभागी और नई दुनिया कम लाभांतित नहीं हुई। ब्रिटिश बैंक भारतीय पूंजी का उपयोग युनाईटेड स्टेटस्, जर्मनी और योरप में कहीं भी उद्योगों में निवेश करने में करते रहे।

आधुनिक पूंजीवाद का उत्थान और औद्योगिक क्रांति, भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों पर आधारित थी। यह उपनिवेशित दुनिया का जबरिया दोहन था जिसने ब्रिटेन या युनाईटेड स्टेटस् को ’’आधुनिक’’ और ’’औद्योगिक’’ बनाया। आधुनिक पूंजीवाद के विश्लेषण में इस बात को गंभीरता से आंका-परखा जाना चाहिए।